भगवान शंकर त्रिदेवों में संहार के देवता माने जाते हैं वह अजन्मे हैं इस वजह से न तो उनके कोई माता पिता हैं और न ही उनका अवतार।
लेकिन उनके अंश जरूर हुए हैं जिन्हे शिवांश कहा गया है जालंधर, अंधक और लोहितांग प्रमुख हैं हम जानेंगे कि (Lohitang kaun tha) के बारे में।
लोहितांग कौन था (Who is Lohitang)
महादेव के 7 शिवांशों में लोहितांग अत्यंत शक्तिशाली था वह भोलेनाथ को वश में करने के लिए समस्त ब्रम्हांड को संगीतमय कर दिया था इस शिवांश का जन्म देवताओं के राजा इंद्र की गलती कहें या नियति के कारण हुआ था।
त्रिदेवों और देवताओं में यह चर्चा का विषय था की कालचक्र के अगले पड़ाव में शिवांश जन्म लेने वाला है किंतु इंद्र इसे रोकना इसलिए चाहते थे कि पहले भी अंधक और जालंधर ने स्वर्ग पर कब्जा कर चुके थे इस वजह से उन्हें लगा कि भगवान शिव को व्यस्त कर दिया जाए जिससे जन्म ही न हो।
देवराज की योजना
स्वर्ग छिन जाने का डर देवराज को सता रहा था वह नाट्याचार्य के पास गए और आग्रह किया कि वह जाएं और आशुतोष भगवान की तपस्या कर ताण्डव नृत्य की शिक्षा ग्रहण करें। इंद्र को लगा कि महादेव तांडव की शिक्षा में व्यस्त रहेंगे तो काल चक्र का पड़ाव बीत जाएगा।
लोहितांग का जन्म
ऋषि टांडू या नाट्याचार्या कई सालों की तपस्या के बाद शिव भगवान प्रकट होकर वरदान मांगने को कहा तब ऋषि ने तनदाव नृत्य सीखने को कहा भगवान शिव उन्हे सिखाने लगे चूंकि तांडव अत्यंत प्रलयंकारी है और सिखाते समय ही भोलेबाबा के मस्तिष्क से स्वेद की बूंद जमीन पर गिरी और बालक के रूप में बदल गई यही बालक लोहितांग था।
ताण्डव अग्नि से उत्पन्न बालक क्रोधी था और पृथ्वी माता ने उसे अंधक असुर को सौंप दिया जिसकी संगति का असर यह हुआ कि वह भगवान शिव को ही दुश्मन समझने लगा और अंधकासुर की मृत्यु के बाद असुरों का राजा बना और भगवान शिव की जगह लेना चाहता था।
लोहीतांग और महादेव का युद्ध
भगवान शिव अत्यंत दयालु हैं उन्होंने कई मौकों द्वारा लोहितांग को शिक्षित और ऋषि पीपलाद जैसे गुरुओं के द्वारा उसकी बुद्धि परिवर्तित करने का अवसर दिया किन्तु उसकी नियति में कुछ और ही लिखा था। लोहितांग भगवान शिव की शक्ति के रहस्य को जानना चाहता था और वह संगीत की शक्ति से परम ब्रह्म को हराने चला था लेकिन अंत में संगीत की धुन में स्वयं शिवमय होकर शिव में ही रम गया।
नाद धीनम जगत सर्वम
इस मंत्र की सिद्धि लोहितांग करना चाहता था इसका अर्थ है कि "समस्त संसार नाद के आधीन है" नाद मतलब संगीत है और सुर संगीत की उत्पत्ति भगवान शिव के डमरू से माना जाता है देवर्षि नारद ने लोहितांग के बचपन में शंकरजी के कहने पर इसकी शिक्षा दी थी। वह मद में आकर यह भूल गया था कि जिन्हे वह संगीत की शक्ति से वश में करना चाहता है वह उसके सृजनकर्ता हैं और परिणाम स्वरूप लोहितांग का अस्तित्व ही समाप्त हो गया।
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अत्यंत शक्तिशाली होने के बावजूद आसुरी प्रवत्ति और त्रिदेव बनने की चाहत ने लोहीतांग के अस्तित्व को ही नेस्तनाबूत कर दिया, शिवांश होते हुए भी अस्तित्वविहीन रहा और महादेव के पथ प्रदर्शन को भी न समझ सका।